मंगलवार, 1 अक्तूबर 2013

खाली प्लेटफ़ॉर्म की ऊब


किसी खाली सुनसान स्टेशन के ‘प्लेटफ़ॉर्म’ की तरह
उस अकेलेपन में इंतज़ार कर देखना चाहता हूँ
कैसा हो जाता होगा वह जब कोई नहीं होता होगा

कोई एक आवाज़ भी नहीं
कहीं कोई दिख नहीं पड़ता होगा
बस होती होगी अंदर तक उतरती खामोशी

दूर तक घुप्प अँधेरे सा इंतज़ार करता ऊँघता ऊबता
कि इस अँधेरे में सरसराती मालगाड़ी जब कानपुर सेंट्रल से चल पड़ेगी
तब कहीं उसके बयालीस घंटे बाद यहाँ पहली हलचल होगी
हफ़्ते में आने वाली एक ही गाड़ी। पहली और आखिरी।

वरना उस सोते स्टेशन मास्टर के पास इतना वक़्त कहाँ था
कि उन खाली पड़े मालगोदामों में किराये पर रखे पौने सात लोगों पर रखी एक स्त्री के साथ संभोग करता
और उसके होने वाले बच्चे से इस अकेलेपन को कम करने की सोचता

ऐसा करने से पहले पहली बार जब यह विचार उसके मन में आया
तब चुपके से उसने प्लेटफ़ॉर्म से पूछा था
वह भी मान गया था उसने भी हाँ भर दी थी।
वह भी अकेला रहते-रहते थक गया था।

अब नहीं सही जाती थी
गार्ड के खंखारते गले से निकलते बलगम की जमीन पर धप्प से गिरने की आवाज़
नहीं सुनना चाहता था उस लोकोमोटिव ड्राइवर की गलियाँ
उन जबर्दस्ती उठा लायी गयी लड़कियों की चीख़
उन्हे कराहते हुए छोड़ भाग जाते लड़कों के कदमों की आवाज़

उन्होने कभी ख़ून को वहाँ से निकलते नहीं देखा
वह डर जाते हैं वह भाग जाते हैं
पर वह नहीं डरेगा वह नहीं भागेगा
वह बस उस नए जन्मे बच्चे के साथ खेलेगा। 

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