बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

दिल्ली का आख़िरी कऊआ


'अब उड़ने में मज़ा नहीं आ रहा..!!'
आहिस्ते से कान में बोल कऊआ दूर गर्दन झुका बैठ गया
थोड़ा सुस्त लग रहा था
बीमार नहीं था पर सुस्त था

पहले कभी उसे ऐसे नहीं देखा था  आज देख रहा था

फ़िर बोला 'क्या करूँ दोस्त सब ख़त्म हो रहा है
मैं तो बस कुछ दिन और रहूँगा फ़िर चला जाऊंगा
कभी वापस आने का मन भी नहीं करता
न शहर छोड़ने पर रोने का..'

उसकी आँख गीली थी या नहीं नहीं देख पाया
बस एकटक घूरता रहा उसकी आवाज़ को
भर्राये गले सा वह चुप रह जाता 
कुछ कहता नहीं  बस देखता रहता

उसने बहुत सी बातें मुझ से की
जितनी याद रहीं उनमे से एक यह थी के 
उसके शरीर में यहाँ की हवा ने जंग लगा दी है
किसी कंपनी का पेंट किसी कंपनी का सीमेंट उन्हे बचा नहीं पाया
जबकि अपने सुबह के नाश्ते में बे-नागा वह इन्हे लेता रहा था

सबसे जादा दुख उसे अपने पंखों का था
जिससे थोड़ा ऊँचा उड़ने में ही वह थक जाता है
रीवाइटल की गोली भी कुछ काम करती नहीं लग रही

कहता था
सलमान की उस होर्डिंग पर जाकर हग देगा जो ओबेरॉय होटल के पास लगी हुई है
और भी कई जगह जाकर ऐसा करने की उसकी योजना थी
जिन-जिन में उसे कऊ आ नहीं रहने दिया था
शर्तिया उसने गालिब को चाँदनी चौक में पढ़ लिया होगा
वरना कऊए का कऊआ न रहना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती
न कोई उसकी बिरादरी में ऐसा सोचता होगा
हम कभी-कभी ख़ुद इतना नहीं सोच पाते वह तो कऊ आ है 

बीच में सोचने लगा अगर कोई इंसान भी ऐसा करने की ठान ले तो उसे लोग पागल कहेंगे
क्या काऊओं को कोई पागल कह सकता है

ख़ैर,
वह बिलकुल जल्दी में था, अरबरा गया था, उसे जाना था अभी
इसलिए जो-जो वह तेज़ी से कहता गया वह मुझ तक उसकी कांय-कांय बनकर पहुँचा

और न उस दिन के बाद से किसी कऊए को मैंने देखा
बस उसकी थकान के लिए जो टैब्लेट खरीदी थीं उनका क्या करूँ यही सोचता रहा
पता नहीं वह उड़ भी पाया होगा के नहीं
बस खटके की तरह रात अचानक उठ जाता हूँ
और दिख जाती है उस शाम सड़क पार करते काऊए की लाश।

सच उसके पंखों में जंग लगा हुआ था और पेट से अंतड़ियाँ नहीं गोलियाँ निकल रही थीं।

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